सूरज….. नहीं मैं
ना वो आग रही अब मुझमें नाही शोलों सा दहेक ताहु ,
चाँद…. नहीं मैं
किशी और की रोशनी पे एतराना हमारी फितरत नहीं
तारा….. नहीं मैं जिसे अपनी रोशनी दिखाने बहुत दूर तक जाना
नदी….. नहीं जनाब वोतों ऊपर से नीचे बहती है हमारी चाहत तो उचाई तक पहुंचने की है
समंदर….. नहीं इतनी गहराई भी क्या की कोई हमारी गहराई समझे भी ना
ज़मीन….. नहीं हमे हमारा बटवारा कतेय मंजूर नहीं
हवा….. नहीं इतना तेज़ बहना शायद हमे रास नहीं आयेगा
बादल….. कभी काला कभी सफ़ेद कभी बरसना कभी गरजना तो कभी यूहि चुप चाप रेहना ये भला क्या बात हुयी ,
हाँ….. आसमान जैसा बनूँगा
कभी काला कभी नीला कभी गेरुए रंग का
चाँद-तारे- सूरज- हवा- बादल सब समेट लूगा, ज़मीन भी देखू गा, समुंदर की गहेराई भी समझूंगा
जिस को जितनी चाह है उसका उतना कोई बटवारा नहीं ,सब के लिए एक ..रंग अनेक और हाँ रहुगा अनंत……..
– अjay
- written by (Ajay Rathod) - Editing by Avinash
-Painting by RINI